छब्बीस शताब्दी पूर्व का समय इतिहास का एक महत्वपूर्ण युग थाgoogle.com । इस समय मनुष्य जाति के लिए एक महान हितसाधक का जन्म हुआ था, जो गौतम बुद्ध के नाम से प्रसिद्ध हुए । बुद्ध ने सार्वजनीन दुःख से मुक्त होने का सार्वजनीन मार्ग 'धर्म ' फिर से खोज निकाला । असीम करूणा से भरकर उन्होंने पैंतालीस वर्षों तक इस मार्ग को आख्यात किया जिससे करोड़ों लोग अपने दुःखों से बाहर निकल सके । आज भी यह मार्ग लोक कल्याण कर रहा है और आगे भविष्य में भी करता रहेगा जब तक कि बुद्ध की शिक्षा और उस शिक्षा का व्यावहारिक पक्ष, दोनों अपने शुद्धतम रूप में बने रहेंगें ।
इतिहास के अनुसार ६२४ ई.पू. में राजा शुद्धोधन कपिलवस्तु के शाक्य गणराज्य के अधिपति थे । उनकी दो रानियाँ थी । महामाया पटरानी थी और छोटी रानी महाप्रजापति गौतमी थी, जो महामाया की छोटी बहन भी थीं । जब महामाया अपने प्रथम प्रसव के लिए राजधानी कपिलवस्तु से मायके देवदह की यात्रा कर रही थी तो उन्होंने मार्ग में ही वैसाख पूर्णिमा के दिन, लुम्बिनी वन में विशाल शाल वृक्ष के नीचे एक पुत्र को जन्म दिया । एक वृद्ध ऋषि असित कालदेवल राजभवन में आये और नवजात शिशु में महापुरूषों के लक्षण देखकर उन्होंने पहले तो प्रसन्नता व्यक्त की और तत्पश्चात रोने लगे । वे यह देखकर हर्षित हुए कि पृथ्वी पर एक ऐसे महापुरुष का आविर्भाव हुआ है जो दुःखों में निमग्न मानव जाति व इतर जीवों को उनकी दुःखमुक्ति का मार्ग बतायेगा, और रोये यह देखकर कि इस मार्ग का लाभ लेने के लिए वे स्वयं उस समय तक जीवित नहीं होंगे ।
जन्म के पांच दिन पश्चात उनके नामकरण-संस्कार का आयोजन हुआ, जिसने आमंत्रित सभी विद्वान ब्राम्हणों ने भविष्यवाणी की कि यह बालक चक्रवर्ती सम्राट होगा अन्यथा यह बुद्ध बनेगा । लेकिन कोंडण्य ने कहा कि यह निश्चित रूप से बुद्ध ही बनेगा । बालक का नाम सिद्धार्थ रखा गया, जिसका अर्थ है- वह व्यक्ति जिसने अपना अर्थ सिद्ध कर लिया है ।
जन्म के केवल सात दिन बाद राजमहिषी महामाया का स्वर्गवास हो गया । बालक सिद्धार्थ गौतम (गौतम पारिवारिक नाम था) का पालन-पोषण उसकी सौतेली माँ महाप्रजापति गौतमी ने किया । जैसे -जैसे राजकुमार बड़े हुए , उन्होंने अपनी उम्र के अनुरूप खेलकूद एवं अमोद-प्रमोद में न पड़ते हुए एकांत तथा ध्यान साधना में रुझान रखा । उनके पिता ने यह देखा तो भविष्यवाणी का भय उभर आया और युवक सिद्धार्थ का ध्यान सांसारिक भोग-विलास की और मोड़ने तथा सांसारिक कष्टों को उनकी नजरों से बचाने के लिए , उन्होंने अपनी और से हर संभव प्रयास प्रारंभ कर दिया ।
सोलह वर्ष की अल्प आयु में ही उन्होंने एक सुंदर राजकुमारी यशोधरा के साथ युवक सिद्धार्थ कर विवाह कर दिया इस आशा से कि यह उन्हें गृहस्थ जीवन में बाँध लेगी । उनतीस वर्ष की अवस्था तक सिद्धार्थ ने सुविधा संपन्न सद्ग्रह्स्थ का जीवन जीया ।
एक दिन जब सिद्धार्थ अपने रथ में सवार होकर विचरण कर रहे थे , मार्ग में उन्होंने एक जर्जर वृद्ध व्यक्ति को देखा दूसरी बार एक बीमार व्यक्ति को , तीसरी बार एक मृत व्यक्ति के शव को और अतिंम बार एक शांत प्रसन्नमुख संन्यासी को देखा । इन चारों घटनाओं का उनके मन पर विशेष प्रभाव पड़ा । सर्वव्यापी अंतर्भूत दु:खो के विषय में वे चिंतन करने लगें और साथ ही सांसारिक सुख-सुविधाओँ के बंधनों का परित्याग करके मुक्ति-मार्ग खोजने का चिंतन करने लगे ।
लेकिन जब सिद्धार्थ को यशोधरा से पुन्न रत्न प्राप्त हुआ, तब उन्होंने इस घटना को एक बंधन के रूप में देखा और बच्चे को 'राहुल' कहने का निर्णय लिया अर्थात "बाधा" । परतु यह बच्चा बंधन बन नहीं सका, क्योंकि सिद्धार्थ ने सोच लिया कि इससे पहले कि बच्चे के प्रति आसक्ति अधिक बढ़े, गृहस्थ जीवन का परित्याग कर देना ही श्रेयस्कर है । दुःख-निवारण के सत्य की खोज के लिए उन्होंने एक संन्यासी का जीवन अपनाने कर निर्णय कर लिया और एक रात सेवक छन्न के साथ उन्होंने राजमहल छोड़ दिया । कुछ दूर जाकर उन्होंने राजसी वस्त्र और आभूषण उतार कर छन्न को दे दिये और अपने केशों को काटकर संन्यासी हो गए । उस समय वे उनतीस वर्ष के थे ।
वे छ: वर्ष तक उस सत्य की खोज में भटकते रहे । पहले आध्यात्मिक आचार्यों आलारकलाम और उद्दकरामपुत्त के आश्रमों में गए और उनसे सम सामयिक सागर-गहन समाधियां (आठवें ध्यान तक) सहज सीख ली । इतना सीख लेने पर भी वे संतुष्ट नहीं हुए । इन अभ्यासों से उनका मन पहले से अधिक शांत और निर्मल तो अवश्य हो गया, परतु यह प्रतीति बनी रही कि मन की तलस्पर्शी गहराइयों में सुषुप्त विकार विद्यमान हैं और मन पूर्णरूपेण निर्मल नहीं हुआ है अर्थात दुःख के नितांत निवारण के सत्य का साक्षात्कार नहीं हुआ है ।
इसकी खोज उन्हें स्वयं करनी होगी इस उद्देश्य से वे उरुवेला के सेनानीग्राम की ओर चल पड़े । वहां उन्होंने पांच अन्य सहयोगियों के साथ कठिन तपश्चर्या का अभ्यास आरंभ किया । उपवास करते -करते केवल हड्डियों का ढांचा मात्र रह गया परन्तु पूर्ण निर्मलता की अवस्था हाथ नहीं लगी । इन दोनों अनुभवों के परिणामस्वरूप उन्होंने देखा कि जैसे भोग विलासमय जीवन व ध्यान प्रश्रब्धियां एक अति है और इस पर चलने से दुःखों से नितांत छुटकारा पाना संभव नहीं है वैसे ही काया कष्ट की साधना दूसरी अति है जिससे भी मुक्ति संभव नहीं है । इन अनुभवों ने उन्हें मध्यम मार्ग पर ला खड़ा किया । उन्होंने फिर से भोजन लेने का निर्णय किया । पास के गांव में रहने वाली सुजाता ने विवाह के पूर्व वट वृक्ष पर रहने वाले देवता से मन्नत मांगी थी कि उसे पुत्र होने पर वह वृक्ष देवता को खीर देगी । उस दिन वह खीर देने वाली थी । सिद्धार्थ प्रातःकाल से ही वट वृक्ष के नीचे बैठे थे । सुजाता ने उन्हें ही देवता समझकर खीर परोसी । जब उनके पाच सहयोगियों को इस बात का पता चला कि उन्होंने भोजन करना प्रारंभ कर दिया तो उनका साथ छोड़ दिया क्योंकि उनका विश्वास यही था कि घोर कष्टमय तपस्या से ही बुद्धत्व संभव है ।
अब सिद्धार्थ अकेले अपने प्रयत्न में लगे रहे । वैशाख पूर्णिमा के दिन निरंजना नदी में स्नान करके वह घने वृक्षों से आच्छादित एक रमणीक स्थान पर आये । वहीं बुद्धत्व प्राप्त करने तक न उठने का दृढ़ संकल्प लेकर बैठ गये । वह रात उन्होंने गहन साधना में बिताई, अपने भोतर सच्चाई की खोज में लीन रहे और प्रात: होने के पूर्व प्राचीन काल से विलुप्त विपश्यना साधना को पुन: खोज निकाला ।
विपश्यना का अर्थ है वस्तु-स्थिति व अवस्था को उसके वास्तविक स्वरूप में देखना, न कि जैसे वह प्रतीत होती है । ब्रहाजाल सुत्त में बुद्ध बताते है कि बोधि प्राप्त करने के लिये उन्होंने केसे अभ्यास किया--
भिक्षुओं ! 'संवेदनाओं की उत्पत्ति, उनका व्यय, उनके आस्वादन में भय और उनसे मुक्ति, इन सब को निहित सच्चाई के आधार पर अनुभव करके, तथागत अनासक्त और मुक्त हो गये हैं ।'
विपश्यना के अभ्यास से अज्ञान, मोह, भ्रम के आवरण का वे भेदन कर सके । समस्त संसार को संस्कृत करने वाले कारण-कार्य श्रृंखला के नियम 'पटिच्चसमुप्पाद' का उन्होंने अन्वेषण कर लिया । उन्होंने देखा कि जो कुछ भी उत्पन्न होता है उसके पीछे कोई कारण अवश्य होता है । यदि कारण को समाप्त कर लिया जाय तो कार्य स्वत: समाप्त हो जाता है । अत: दुःख के कारण को पूरी तरह समाप्त करके, सच्चे सुख को प्राप्त किया जा सकता है ; सारे दुःखों से सचमुच छुटकारा हो सकता है । इस अभ्यास के द्वारा शरीर और चित्त के प्रति भ्रम उत्पन्न करने वाले ठोसपने की गहराइयों तक पहुँचकर, मन में राग तथा द्वेष उत्पन्न करने वाले स्वभाव को विगलित कर, उन्होंने संस्कारविहीन सत्य का साक्षात्कार कर लिया । अविद्या का अंधकार दूर हो गया और प्रज्ञा-प्रकाश प्रखरता से देदीप्यमान हो गया । सूक्ष्मतम मनोविकार भी धुल गये । सभी बेड़ियाँ टूट गयीं, भविष्य के लिये तृष्णा का लवशेष भी नहीं रह गया; उनका मन सर्वप्रकार से सर्वआसक्तियों से विहीन हो गया । सर्वथा शुद्ध स्वरूप में परम सत्य का अनुभव करके, सिद्धार्थ गौतम परम ज्ञान को प्राप्त हुए और सम्यक सम्बुद्ध हो गए । 'भग्ग रागो, भग्ग दोषों, भग्ग मोहो' अर्थात राग-द्वेष-मोह को पूर्णतया भग्न करने के कारण वे ' भगवा ' अर्थात सही अर्थ में भगवान कहलाये ।
पूर्ण विमुक्ति की अवस्था प्राप्त करने पर उनके मुख से प्रसन्नतापूर्ण निम्न उदान उभरा:
अनेक जाति संसारं , संधाविस्सं अनिब्बिसं ।
गहकारकं गवेसंतो , दुवखा जाति पुनष्पुनं । ।
गहकारक दिट्ठोसि, पुन गेहं न काहसि ।
सब्बा ते फासुका भग्गा गहकूटं विसंखितं । ।
विसंखारगतं चित्तं तण्हर्निं खयमज्झागा । ।
गहकारकं गवेसंतो , दुवखा जाति पुनष्पुनं । ।
गहकारक दिट्ठोसि, पुन गेहं न काहसि ।
सब्बा ते फासुका भग्गा गहकूटं विसंखितं । ।
विसंखारगतं चित्तं तण्हर्निं खयमज्झागा । ।
--"अनेक जन्मो तक बिना रूके संसार में दौड़ लगाता रहा, (इस कायारूपी) घर बनाने वाले की खोज करते हुए पुन: पुन: दुःखमय जन्म होता रहा, हे गृहकारक अब तू देख लिया गया है अब तू पुन: घर नहीं बना सकेगा । तेरी सारी कड़ियां भग्न हो गई है घर का केन्द्रगत स्तंभ भी छिन्न-भिन्न हो गया है चित्त संस्कार विहीन हो गया है तृष्णा का समूल नाश हो गया है ।
बोधि प्राप्त कर लेने के पश्चात बुद्ध ने कई सप्ताह निर्वाण की परम शांत अवस्था में व्यतीत किये । इसके बाद बर्मा देश के उक्क्लवासी तपस्सु और भल्लिक नामक दो व्यापारियों ने उन्हें चावल और शहद का व्यंजन सादर अर्पित किया । ये दोनों बुद्ध के प्रथम गृहस्थ शिष्य हुए, जिन्होंने केवल बुद्ध और धर्म की शरण ग्रहण की (वास्तविक धर्म नहीं सीख पाए ।) उस समय तक संघ अस्तित्व में नहीं आया था ।
बर्मी परंपरा के अनुसार वे दोनों व्यापारी वर्तमान रंगून के समीप के एक प्राचीन नगर ओक्क्ल के वासी थे । बर्मी लोग इस बात पर गौरव करते हैं कि बुद्ध और धर्म को आदर प्रदान करने में बर्मी लोग ही सर्वअग्रणी थे और बोधि प्राप्त करने के बाद बुद्ध ने अपने प्रथम भोजन के रूप में बर्मी चावल और शहद का मोदक ग्रहण किया था ।
असीम करूणा से भरकर बुद्ध ने इस "दुःखनिवारण धर्म' की देशना देने का निर्णय लिया । उन्हें सर्वप्रथम उनके दोनों पूर्व आचार्य आलारकलाम और उद्दकरामपुत्त का स्मरण किया जो धर्म को ग्रहण करने में समर्थ थे पर बोधिनेत्रों से उन्होंने जाना कि वे शरीर त्याग चुके थे । फिर अपने उन पांच सहयोगियों को स्मरण किया जो बोधि प्राप्त करने के कुछ समय पूर्व ही उनका साय छोड़ कर चले गये थे । उन्हें धर्म सिखाने के लिए उन्होंने वाराणसी के समीप सारनाथ के इसिपत्तन मिगदाय (मृग उद्यान) जाने का निर्णय लिया । आषढ़ पूर्णिमा के दिन वहां पहुंच कर बुद्ध ने मध्यम मार्ग की व्याख्या करते हुए उन्हें जो धर्मोपदेश दिया वह "धम्मचवक्तपवत्तन सुत्त" कहलाया अर्थात पहली बार धर्मचक्र प्रवर्तन किया । वे उनके पहले पांच भिक्षु शिष्य हुए और भिक्षु संघ के प्रथम पांच सदस्य हुए । इसके पश्चात बुद्ध ने उन्हें 'अनत्तलक्खण सुत्त" का उपदेश दिया जिसके अंत में विपश्यना का अभ्यास करते हुए वे पांचों अरहंत हो गथे । उन्होंने अनित्य, दुःख तया अनात्म की सच्चाई का स्वानुभूति से साक्षात्कार कर लिया ।
इसके कुछ ही समय बाद तनाव एवं मानसिक परेशानियों से पीड़ित एवं अपने ऐश्वर्ययुक्त विलासी जीवन से अशांत वाराणसी के एक समृद्ध व्यापारी का पुत्र यश बुद्ध के संपर्क में आया और भिक्षु बन गया । उसके साय उसके चौव्वन मित्र आये और भिक्षु हो गये । धर्म का रस चखकर उन्हें परम शांति प्राप्त हुई, जिसकी कि उन्हें खोज थी । निरंतर अभ्यास से वे सब अरहंत अवस्था को प्राप्त हो गये । इस प्रकार ६० भिक्षुओं का संघ स्थापित हुआ । यश के माता-पिता भी तीन रत्नो की शरण ग्रहण करके प्रथम युगल गृहस्थ उपासक हुए , क्योंकि तब तक तीन रत्नों में शरण लेना प्रतिपादित हो गया था बुद्ध, धर्म, और संघ ।
आगे के मास वर्षाकाल के थे जिले बुद्ध ने सारनाथ में एकांतवास (वर्षावास) करते हुए संघ के साथ बिताये, जो संघ बढ़ कर अब साठ अरहंत भिक्षुओं का समुदाय हो गया था । वर्षावास समाप्ति पर भगवान ने भिक्षुओं को आदेश दिया:-
"भिक्षुओं । बहुजन के हित-सुख के लिए, देवों तथा मनुष्यों के कल्याण के लिए, मंगल के लिए, लोकों पर अनुकम्पा करते हुए विचरण करें, परंतु दो भिक्षु एक ही दिशा में नहीं जायें ।
धर्म की शिक्षा देने के लिये बुद्ध ने इन साठ भिक्षुओं को विभिन्न स्थानों पर भेजा । क्योंकि इन लोगों ने मुक्ति मार्ग का स्वयं साक्षात्कार किया था, ये मुक्ति की शिक्षा के लिये स्वयं ज्वलंत उदाहरण थे । उनकी शिक्षा केवल प्रवचनों या शब्दावलियों तक सीमित नहीं थी । उनकी सफलता, लोगों द्धारा शिक्षा को आचरण में उतारे जाने में निहित थी । स्वभावतः ही 'शील समाधि प्रज्ञा' वाला धर्म आदि में कल्याणकारी शील पालन है मध्य में कल्याणकारी समाधि अर्थात चित्त को एकाग्र करके उसे वश ने करना है और अत में कल्याणकारी प्रज्ञा है । धर्म का अभ्यास प्रतिफलित होने लगा । विभिन्न संप्रदायों, जातियों तथा वर्गों के लोग आकर्षित होने लगे । विभिन्न संप्रदायों के नेता धर्म धारण करने लगे । भगवान जब उरुवेला के सेनानीग्राम की ओर यात्रा कर रहे थे, तीस 'भद्दवग्गीय' सन्यासी भिक्षु बन गये । उरुवेला में तीन कस्यप बंधु, अपने एक हजार शिष्यों के साय भिक्षु हो गये । दो ब्राह्मणों सारिपुत्र और मोग्गल्लान ने भी प्रव्रज्या ग्रहण कर ली, जो कि आगे चलकर बुद्ध के प्रमुख शिष्य बने ।
उस समय के अनेक महत्त्वपूर्ण लोग शुद्ध धर्म की और आकर्षित हुए जैसे मगध सम्राट बिंबिसार, शाक्यराज शुद्धोधन और कौशलनरेश महाराज प्रसेनजित; समृद्व व्यापारीगण -- अनाथ पिंडिक ,जोतिय ,जटिल ,मेंडक ,काकवलिय, पुण्णक ; प्रख्यात महिलाएं- बिसाखा, सुप्पवासा तथा खेमा आदि । इन्होंने समाज के लोगों में शुद्ध धर्म के प्रसार की पुनीत चेतना से अनेक विहार बनवा कर संघ को दान में दिए । इससे लोगों को धर्म धारण करने का अभ्यास करने की सुविधाएँ प्राप्त हुईं ।
बुद्ध ने अप्पना दूसरा, तीसरा और चौथा वर्षावास सम्राट बिंबिसार द्धारा दान में प्रदत्त राजगृह स्थित वेणुवन उद्यान में व्यतीत किया । भगवान वर्षाकाल में एक ही स्थान पर आवास करते थे और शेष समय ने उत्तरी भारत में चारिका करते थे । इनमें से एक यात्रा महाराज शुद्धोधन के निमंत्रण पर कपिलवस्तु के लिये की थी । कुलीन शाक्यों ने उनका समग्र सत्कार किया । उनकी इस यात्रा में पुत्र राहुल एव सौतेले भाई नंद के साथ हजारों लोग संघ में शामिल हो गये यथा-अनिरुद्ध,भद्दिय, आनंद, भगु, किंबिल, देवदत्त, यहां तक कि शाही नाई उपालि भी ।
उन्होंने पांचवां वर्षावास वैशाली में व्यतीत किया । इसी वर्ष उनके पिता महाराज शुद्धोधन का स्वर्गवास हुआ । विधवा रानी महाप्रजापती गौतमी ने महिलाओं को संघ में प्रवेश की बुद्ध से अनुमति मांगी । उनकी ओर से आनंद ने विशेष अनुरोध किया तब उन्हें अनुमति मिली । इस तरह भिक्षुणी संघ का आरंभ हुआ ।
बुद्ध ने अगला वर्षावास ' मन्कुल ' पर्वत पर तथा सातवां महामाया व अन्य देवों को अभिधर्म की देशना के लिए 'तावतिंस' देवलोक में व्यतीत किया ।
इसके पश्चात आठवें से उन्नीसवें वर्षावासों में निम्न स्थानों पर महाविहार किया । भैसकलावन, कोसांबी, परिलेयक वन, ब्राह्मणों का गांव, एकनाला, वेरंजा , चालिक पर्वत, श्रावस्ती में जेतवन, कपिलवस्तु, आलवी और राजगृह ।
बुद्ध ने बीसवां वर्षावास राजगृह में बिताया । बीसवें वर्ष में ही उनकी प्रेरणा से नौ सौ निन्यानवे मनुष्यों की हत्या कर चुकने वाले भयावह डाकू अंगुलिमाल का जीवन परिवर्तन हुआ । धर्म के संपर्क में आकर अंगुलिमाल संत बन गया और कालांतर में अरहंत हो गया ।
बुद्ध ने इक्कीसवें से अंतिम छियालिसवें वर्षावास का समय श्रावस्ती के जेत्तवन विहार और पुब्बाराम विहार में व्यतीत किया ।
जन्म, जाति, वर्ग, पशु-बलि पर आधारित कर्मकांड और प्राचीन रूढिवादी अंध मान्यताओं पर विश्वास करने वालों ने उनका अनवरत विरोध किया । अनेक अवसरों पर उनका तथा उनकी शिक्षा का विरोध करने के लिये संप्रदायवादियों ने विविध षड़यंत्र भी किये । एक भिक्षु देवदत्त ने संघ में फूट डालने की कोशिश की यहाँ तक कि बुद्ध की हत्या करने के अनेक प्रयास किये । परंतु हर बार बुद्ध ने अपने अनंत ज्ञान, मैंत्री और करूणा से इन विरोधी शक्तियों को शांत किया और वे दुःखियारे लोगों की अधिक से अधिक सेवा में रत रहे, जिससे कि वे अपने दुःखों से बाहर आ सकें ।
अस्सी वर्ष की अवस्था में बुद्ध वैशाली पधारे । वहा गणिका अंबपाली ने उन्हें भोजन के लिए आमंत्रित किया और अपना अंबलट्टिका नामक आम्र उद्यान संघ को दान में समर्पित कर दिया । धर्म धारण कर वह दुश्शीलता के आचरण से मुक्त हुई और सत्य में प्रतिष्ठित होकर अरहंत हो गयी । अपने सभी दुःखों से सदा सर्वदा के लिये विमुक्त हो गयी । उसी वर्ष बुद्ध वहां से पावा आये और चुंद के आम्रवन में ठहरे । यहीं पर उन्होंने अपना अंतिम भोजन ग्रहण किया और अस्वस्थ हो गये । इस अशक्त अवस्था में ही उन्होंने कुशीनारा के लिए प्रस्थान किया । यहां पर उन्होंने आनंद से युग्म शाल वृक्षों के बीच अ्पना चीवर बिछाने का निर्देश दिया और कहा कि उनके शरीर त्याग करने का समय आ गया है । बहुत बड़ी संख्या में भिक्षु, गृहस्थ और देवता उन्हें अंतिम श्रद्धांजलि देने के लिए उपस्थित हुए । बुद्ध ने उन्हें 'पच्छिमा वाचा' नामक अंतिम उपदेश दिया-
"वय धम्म संखारा, अप्पमादेन सम्पादेथ !"
-सारे संस्कार व्यय धर्मा है अप्रमादी होकर अपनी मुक्ति सम्पादित करो !
५४४ ईसा पूर्व, वैसाख पूर्णिमा के दिन अपने अस्सीवें वर्ष में जैसा धर्म उन्होंने स्वयं आचरित किया था, उसे सुभद्र नामक व्यक्ति को सिखाते हुए बुद्ध महापरिनिर्वाण को प्राप्त हुए ।
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